गणेश चतुर्थी का त्योहार इस साल सिर्फ भक्ति और उल्लास का नहीं, बल्कि ग्रामीण भारत के लिए आर्थिक क्रांति का भी संदेश लेकर आया है। विघ्नहर्ता गणपति बप्पा के आगमन के साथ ही, गोमय गणेश की प्रतिमाओं ने बाज़ार में धूम मचा दी है। देसी गाय के गोबर और पंचगव्य से बनी ये मूर्तियां न केवल पर्यावरण को बचाने का काम कर रही हैं, बल्कि किसानों और गौपालकों के लिए मुनाफे का एक स्थायी और आकर्षक जरिया भी बन गई हैं।
अब तक गाय का गोबर किसानों के लिए केवल खाद का एक साधन था, लेकिन अब यह एक मूल्यवान कच्चा माल बन गया है। किसान और गौपालक समुदाय गोबर को एक नए व्यवसाय में बदल रहे हैं। इन मूर्तियों को बनाने की प्रक्रिया सरल और लागत-प्रभावी है। इसमें गोबर के साथ प्राकृतिक गोंद, मिट्टी और कुछ जैविक सामग्री मिलाकर एक मिश्रण तैयार किया जाता है, जिसे साँचे में डालकर मूर्तियाँ बनाई जाती हैं। इन मूर्तियों को धूप में सुखाकर प्राकृतिक रंगों से सजाया जाता है।
सालाना आय में 20,000 रुपये तक की बढ़ोतरी
यह नया बिज़नेस मॉडल ग्रामीण परिवारों की आय में उल्लेखनीय वृद्धि कर रहा है। एक किसान या गौपालक परिवार गणेश चतुर्थी के दौरान सिर्फ गोमय गणेश की मूर्तियाँ बेचकर 15,000 से 20,000 रुपये तक का अतिरिक्त मुनाफा कमा सकता है। यह उनकी पारंपरिक कृषि आय के मुकाबले एक बड़ा और महत्वपूर्ण इजाफा है। इस सफलता से प्रोत्साहित होकर, अब वे साल भर के त्योहारों के लिए भी योजना बना रहे हैं।
दिवाली के लिए गोबर से बने लक्ष्मी-गणेश और दिए
आगे आने वाले दीपावली के त्योहार के लिए भी गोमय उत्पाद बाज़ार में अपनी जगह बना रहे हैं। अब गोबर से बनी लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियां, दीये और अन्य सजावटी सामान तैयार किए जा रहे हैं। ये उत्पाद न केवल पर्यावरण के अनुकूल हैं, बल्कि पारंपरिक मिट्टी के दियों के मुकाबले अधिक टिकाऊ भी हैं। इससे दिवाली के दौरान भी किसानों और गौपालकों को कमाई का मौका मिलेगा। विशेषज्ञों का मानना है कि यह पहल गौपालन को एक लाभकारी व्यवसाय में बदल रही है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नई दिशा दे रही है।
कम खर्च, अधिक मुनाफा
इस व्यवसाय का सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसमें निवेश बहुत कम होता है। कच्चा माल (गोबर) आसानी से उपलब्ध है और निर्माण प्रक्रिया भी जटिल नहीं है। इससे छोटे किसान और स्वयं सहायता समूह (Self Help Groups) भी आसानी से इस काम को शुरू कर सकते हैं। इस तरह, गोमय गणेश का यह चलन एक उत्सव से बढ़कर, एक स्थायी और आत्मनिर्भर बिज़नेस मॉडल की मिसाल बन रहा है। यह साबित करता है कि आस्था, पर्यावरण संरक्षण और आर्थिक समृद्धि एक साथ चल सकते हैं।
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